Friday, 15 August 2008

बच्चों को आजाद करो


बच्चों को आजाद करो
अपनी बूढी बातों से
बच्चों को माफ़ करो
अपनी शिकायतों से ।

बच्चे नही खेलेंगे तो
भला फिर कौन खेलेगा ?
बच्चे नही तोडेंगे खिलोने
तो बताओ कौन इन्हे तोडेगा ।

बच्चों को तोड़ने दो शीशे
इनकी मस्ती में हम भी जी लें
बच्चों को आजाद करो
अपनी भोझिल बातों से

बच्चों को बहने दो
इनको जश्न मनाने दो
इनको दे दो ढील
इनकी पतंगे उड़ने दो

ये बच्चे नया कल लायेंगे
ये बच्चे सुनहरे पल लायेंगे

खुशियों के गुब्बारे हैं
ये बच्चे प्यारे हैं
हम भी इनमे मिलजुलकर
फ़िर से बच्चे बन जाए

मन को कर ले संग इनके
हम भी कुछ आजाद
बच्चों के संग उड़ा दे
अपनी भी परवाज़

इनकी ऊँची उडानों को
अभी से मत लगाओ लगाम
नासमझ नही हैं बच्चे
ये खुदा के रूप है सच्चे !!

3 comments:

सुप्रिया said...

बचपन को आजाद करना बेहद ज़रूरी है .हमारे भीतर का बचपन अगर जिंदा हो जाए तो सचमुच ये ज़मी जन्नत बन जाए .सुन्दरतम सोच आभार उम्दा शिल्प

Arvind Mishra said...

नासमझ नही हैं बच्चे
ये खुदा के रूप है सच्चे !!
बिल्कुल सही !

मेनका said...

hamesha aapki kavita padhkar lagta hai ki ek sundar bachpan abhi bhi aapke man me hai.bahut hi sundar rachna...keep it up.