Saturday, 9 August 2008

सुबह सुबह ये बात !



गिरती बूंदों के संग आए
कल रात कुछ ख्वाब
सौगातों की बारिश
बरसी सारी रात

सुबोह जैसे सूरज गुम था
बादलों से होती रही
दिन भर मुलाक़ात

सुबोह सुबोह पेड़ों ने कहा मुझसे
सारी रात हम भीगते रहे
बरसाती भी खोल सके

तुम बंद कमरे में
खिड़की से बारिश को देखते रहे
हमें रात क्यों न बुलाया
तुमने अपने कमरे में

उधर छत का गुस्सा
भी सातवे आसमान पर था
पानी से गलती रही वो सारी रात

सर्दी लग गई मुझको
एक पेड़ ने मुझसे कही
सुबह सुबह ये बात ।

2 comments:

Amit K Sagar said...

क्या बात है. आपको पढ़के महसूस होने का भ्रम सा होता है कि क्या ये मुमकिन है कि बेजान चीज़ों में अहसास होता है.!
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यहाँ भी आयें;
उल्टा तीर

सुप्रिया said...

उधर छत का गुस्सा
भी सातवे आसमान पर था
पानी से गलती रही वो सारी रात

सर्दी लग गई मुझको
एक पेड़ ने मुझसे कही
सुबह सुबह ये बात ।
ये पंक्तियाँ मुझे बहुत पसंद आई .बेहद सुंदर !! आपने पेडों से भी बात कर ली . मुंबई में भी इन दिनों बारिश जम के हो रही है .सरल सहज और मासूम आभार