Monday, 15 September 2008

खुदा को ख़त


(एक)
प्यारे खुदा ,
सहमी सी क्यों ये फिजा है
मासूम से लोगो का आख़िर
गुनाह क्या है ?
क्यों बार बार इंसानियत
जार जार होती है ?
इन धमाकों से खुदा
अब इंसानियत रोती है !!

(दो)
सुनते थे कि एक रोज़ तू क़यामत लायेगा
हम सबको देना होगा तेरा हिसाब
लगता है तेरी इस दुनिया में तेरे बन्दे
क़यामत लाने का हक
अब तुझसे छीनने लगे है
तेरे बन्दे ही अब क़यामत ला देते है
कभी धमाकों की शक्ल में
कभी वहशत भरी अक्ल से
धमाके अब दिल को दहलाते नही
तेरी रजा से पत्ता भी नही हिलता
तब क्या इन धमाकों के पीछे भी
तेरी ही मर्जी है
खुदा ये हद है ऐसे खुदगर्ज़ न बन
अपनी दुनिया को पुरसकून कर

(तीन)
तेरी प्रजा ,तेरी रजा को ही मान लेती है
तेरी प्रजा तेरी रजा से खुश है
खुदा इस शोर शराबे का न जाने
तुझ पर असर होता भी ये या नही
मुझे मालूम नही ,इतना ज़रूर है
खुदा जो भी ये वहसत करता है
वो दहशतगर्द तेरा बंद नही हो सकता
रमजान के नेक मुबारक
महीने का ख्याल भी नही
अजान और नमाज़ में
इंसानियत का लिहाज़ भी नही
ये धमाका ... शैतान का काम है
उसे सज़ा देना खुदा तेरा ही अब काम है

4 comments:

Unknown said...

AACHA LAGA DUBE JI
KHUDA KABHI TUM BH BARAHKHAMBA ROAD PAR AAO .....DHAMAKE KA SHOR SUAN KAR JAO........
TUM AAO TOH....YEN NAZARA DEKH KAR JAO.....KHUDA EK BAR AAO

रश्मि प्रभा... said...

ya khuda,jawaab do is khat ka
bahut marmik khat !

nareshksk said...

i really like this.....excellent

OP Yadav said...

बहुत ही श्रेष्ठ पंक्तियां !! करो खुद नाम खुदा का।