Tuesday, 19 February 2008

ज़िन्दगी का रँग

"ज़िन्दगी का रँग"

जब मन का मीत मिले
तब जीवन गीत बने
सुर बने साज़ बने
जीवन एक आवाज़ बने.

मैं अब भी इंतज़ार करता हूँ तेरा ज़िन्दगी,
आ मेरे पास तू इक जीत की शक़्ल में.
मेरे मन का दर्पण अब भी कोरा है,
जब भी आ ,आजा अपनी शक़्ल देख ले.

तेरा इंतज़ार ही सही मेरी ज़िन्दगी का हासिल,
ये बात और की तेरी ज़िन्दगी अब वैसी नही.

कभी तू भी दिल लगाना और देख लेना,
दिल लगाकर तुझसे मैने क्या खोया.
मैं अपनी तडप आप हूँ,

अपने दर्द की खुद ही आवाज़ हूँ.
तू जान भी ले और मान भी ले,
दिल लगाना कोई हसी खेल नही .

ये जो मेला था बिछुड गया,
एक हिस्सा था कभी छूट गया .
पर्दे में क्यों छिप जाती हो ,

मै ही तो इक राज़दाँ हूँ,
मुझसे क्या छिपाती हो.

खुद को खोया तो खुदा मिला,
अपना वज़ूद अब जुदा हुआ....

(sent mail to trishnaji july 2007)

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