मेरे परम मित्र अमित के सागर की एक रचना जो मुझे बेहद पसंद है ........
कुछ ग़मों के दीये कभी नहीं बुझेंगे
जले बारम्बार-ये अश्क नहीं थमेंगे
बचपन का छत से गिर जाना
फिर मौत का आना
लहू की आखिरी बूंद तक तड़पना
फिर मेरा मर जाना
ये सिलसिले कभी नहीं थमेंगे
कुछ ग़मों के दीये कभी नहीं बुझेंगे
खिलोनों के टूटने पर
मेरे रूठने पर
दिलासा देती थी "दादी"
ये फिर से जुड़ जायेंगे
और नए फिर लायेंगे
वो खिलोनें मेरे घर में
अब कभी नहीं बनेंगे
कुछ ग़मों के दीये कभी नहीं बुझेंगे
जिन उंगलियों का सहारा नहीं
दर्द क्यों उनका भी गंवारा नहीं
कभी "पा" कहते हैं कभी "पापा"
कहने से क्या है मगर ए-"सागर"
वो आह! तक नहीं भरेंगे
कुछ ग़मों के दीये कभी नहीं बुझेंगे
------------(अमित के. सागर) ५-१२-०७
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