तन्हाई अपनी मिटटी से मैं ज्यादा दिन न सह पाउँगा
इक रोज़ उडके मैं वही जाना चाहूँगा
जला जब कतरा कतरा तो याद तुम्ही आये
वो सावन के झूले और बागों के पत्ते गुनगुनाये
दिल समन्दर है इसमें आके डूब जा
या जा कहीं और फिर वापस मत आ ....
तुम जिसे अपना कहो कोई भी नहीं ऐसा
पागल डेरा है ये या मैं खुद पागल जैसा
सच सिर्फ सच होता है कुछ और नहीं
खबर ये ताज़ा है कुछ और नहीं !!
(मार्च २००७ मे अपने मित्र तृष्णा को भेजी गयी एक मेल )
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